पर्वतीय प्रदेश सदा से ही मानव मन को आह्लादित और आकर्षित करते हैं। ये पर्वत अपने आप में असंख्य रहस्यों को समेटे रहते हैं। इनका गहराई से अध्ययन करने पर मानव–सभ्यता और अतीत की अनेक कहानियों के बारे में पता चलता है, जिनके अवशेष आज भी इन पर्वतीय प्रदेशों में बिखरे हुए हैं। जिनसे हमें अपने पूर्वजों के रहन–सहन, धार्मिक विश्वास एवं उनकी कलात्मक अभिरूचियों के बारे में पता चलता है। उपरोक्त विचार केन्द्रशासित प्रदेश जम्मू और कश्मीर के उधमपुर जिले के विषय में अक्षरशः सत्य सिद्ध होते हैं। इस पर्वतीय जिले में स्थान–स्थान पर प्राचीन मन्दिरों के अवशेष, प्राचीन कलाकृतियाँ, प्रस्तर मूर्तियाँ, पाण्डुलिपियाँ और अभिलेख प्राप्त होते हैं।
इनमें सर्वाधिक संख्या में पाषाण प्रतिमाएं प्राप्त होती हैं, जो कि लगभग इस पर्वतीय जिले के प्रत्येक गाँव के जलस्रोतों पर मिल जाएंगीं। समय की गति के साथ एवं जलापूर्ति के आधुनिक संसाधनों के कारण, प्राचीन सभ्यता एवं संस्कृति की मूर्तस्वरूप ये बावलियाँ अथवा जलस्रोत अपना अस्तित्व खोती जा रही हैं। समय रहते इनके संरक्षण एवं गम्भीर अध्ययन की नितान्त आवश्यकता है।
प्राचीनकाल से ही प्राकृतिक जलस्रोतों को सहेजने संवारने की परम्परा भारतवर्ष में रही है। इन जलस्रोतों को बावली, चश्मा और उधमपुर की आँचलिक डोगरी भाषा में बाँ, बौली अथवा नाडू कहा जाता है। उधमपुर केन्द्रशासित प्रदेश जम्मू एवं कश्मीर का एक पर्वतीय जिला है, जोकि जम्मू से कश्मीर के राष्ट्रीय राजमार्ग में है। इस जिले को पवित्र देविका नदी के कारण देविका नगरी भी कहा जाता है और बावलियों, सोतों की धरती भी कहा जाता है क्योंकि यहाँ कदम–कदम पर प्राचीन बावलियाँ व चश्मे मिलते हैं। इस जिले का नाम डोगरा शासक महाराजा गुलाब सिंह के सुपुत्र राजा उधम सिंह के नाम पर है। राजा उधम सिंह अक्सर इस वन प्रदेश में शिकार करने आया करते थे और प्राकृतिक सुषमा से भरपूर ये प्रदेश उन्हें अत्यधिक प्रिय था। उधमपुर नगर की बसाहट और इसके विकास में उनका बहुत योगदान रहा है। इस जिले की सीमाएं चारों ओर से जम्मू, डोडा, कठुआ और राजौरी जिलों से जुडती हैं। चूंकि जम्मू कश्मीर एक पर्वतीय प्रदेश है और प्रस्तावित उधमपुर का क्षेत्र भी, अतः इन जलस्रोतों को दीर्घकाय शिलाखण्डों पर भिन्न–भिन्न प्रकार की कलाकृतियों से सजाया जाता था।
ये कलाकृतियाँ विभिन्न श्रेणियों में विभक्त की जा सकती हैं जैसे– देवी–देवता, नाग, यक्ष–यक्षिणियाँ, गन्धर्व–किन्नर, सूर्य, स्वास्तिक, तान्त्रिक कलाकृतियाँ, समकालीन जनजीवन से सम्बन्धित कलाकृतियाँ (पालकी और कहारों के साथ नववधू और राजदरबार आदि के दृश्य) और अभिलेख इत्यादि। इनके माध्यम से लोककलाकारों ने विभिन्न अभिप्रायों, भावों को अभिव्यक्त किया। मुख्य रूप से इन कलाकृतियों के माध्यम से धार्मिक पृष्ठभूमि, स्थानीय विश्वास और लोक–व्यवहार की अभिव्यक्ति मिलती है।
प्रस्तुत माड्यूल का उद्देश्य इन प्रस्तर प्रतिमाओं, कलाकृतियों पर प्रकाश डालते हुये इनके वैशिष्ट्य व इनको उकेरने के पीछे के विचारों, मान्यताओं को सामान्य जनों के सामने प्रस्तुत करना है, ताकि समय रहते हम प्राचीन सभ्यता और संस्कृति की वाहक इस धरोहर के इतिहास और महत्व को समझते हुये, इनके संरक्षण के लिये भी जागरूक हो पाएं।