ओडिशा के पटचित्र

in Article
Published on: 09 November 2018

Mushtak Khan

Mushtak Khan
Born om 3rd May1950. Post Graduate in Fine Arts. Started career as Research Officer for Folk, Tribal and contemporary Arts at Bharat Bhawan, Bhopal (M.P.), India. Served Crafts Museum, New Delhi as Deputy Director (Design and Documentation) for more than twenty years.
Nominated Member as folk & Tribal Art expert for Lalit Kala Akademi, New Delhi, 2002 – 2007.
Researcher for project on the “Field Research for Safeguarding Intangible Cultural Heritage” organized by International Research Centre for Intangible Cultural Heritage in Asia-Pacific Region (Japan) under the auspices of UNESCO for the years 2011 and 2012.
Extensive field work and documentation of tribal and folk arts of Madhya Pradesh, Chhattisgarh, Maharashtra, Gujarat, Rajasthan and Odisha.

ओडिशा के पटचित्र

 

यह कहना तो कठिन होगा कि ओडिशा के पटचित्र कब और कैसे बनना आरम्भ हुए परन्तु इनकी परम्परा प्राचीन है यह निश्चित रूप से  कहा जा सकता है। पटचित्रों के उदभव्  के संबंध में कोई प्रामाणिक उल्लेख तो नहीं मिलता परन्तु जगन्नाथ उपासना से इनके  निकट सम्बन्ध के कारण इनकी प्राचीनता संदेह से परे है। पुरी  में जगन्नाथ मंदिर का निर्माण आठवीं सदी में हो गया था परन्तु जगन्नाथ  प्रतिमा का रंगांकन सहित जैसा रूप वर्तमान में है, उसका सबसे पुराना उदाहरण  सत्रहवीं सदी में बने चित्रों में मिलता है। इस तथ्य के आधार पर हम इतना तो मान ही सकते हैं कि यह परंपरा लगभग चार सौ साल पुरानी है।

 

जगन्नाथ उपासना की परम्परा में  पटचित्र का उपयोग  उस  अवधि में पूजा - अर्चना हेतु किया जाता है जब अनुष्ठानिक स्नान की  रीति निर्वाहन  के लिए  जगन्नाथ जी के मंदिर के द्वार बंद कर दिए जाते हैं। इस समय  यह चित्र ,मूर्ति के पर्याय स्वरुप  पूजा हेतु  प्रयुक्त किये जाते हैं।

 

इन चित्रों का निर्माण  सूती  कपड़े की दो परतों को लेही द्वारा आपस में चिपका कर तैयार की गयी सतह पर किया जाता है। कपड़े से  इस प्रकार तैयार की गयी सतह पट या पट्ट कहलाती है , इसी कारण यह चित्र,  पटचित्र  कहलाते हैं। विद्वानों के अनुसार इस चित्रण शैली मैं लोक एवं शास्त्रीय दौनों ही तत्वों  का समावेश है तथा इन्हें बनाने  में भुबनेश्वर, पुरी  एवं कोणार्क के मंदिर एवं प्रासादों में   बनाए गए  म्यूरल चित्रों से प्रेरणा ली गयी है ।

 

ओडिशा  के अधिकांश पटचित्रकार मानते हैं कि पटचित्रों का विकास  जात्री चित्रों  के रूप में  हुआ है।सामान्यतः तीर्थयात्रा  को जात्रा भी कहा जाता है , जगन्नाथ  जी की वार्षिक रथयात्रा भी जात्रा  कहलाती है। इन्ही अवसरों पर आने वाले तीर्थयात्री , जात्री कहे जाते हैं। यह पटचित्र  मुख्यतः उन्ही तीर्थयात्रियों हेतु बनाये जाते थे जो देश के दूर -दराज़  के इलाकों से यहाँ जगन्नाथ जी के दर्शनार्थ आते थे। तीर्थयात्रा से लौटते समय वे इन चित्रों को जगन्नाथ पुरी के पवित्र प्रसाद  स्वरुप एवं  तीर्थ स्मृति के प्रतीक की भांति अपने साथ ले जाते थे। आम तौर पर वे इन्हे  माथेपर या  गले में धारण करते थे अथवा अपने घर के पूजास्थान में रखते थे। आरम्भ में जो पटचित्र   बनाये  जाते थे वे  आज बनाये जाने वाले पटचित्रों जैसे नहीं होते थे। इनका आकार बहुत छोटा  रखा जाता था और इनपर  केवल जगन्नाथ , सुभद्रा एवं बलभद्र  का चित्रांकन किया जाता था ।

यह जात्री चित्र दो आकार के बनाये जाते थे गोल और आयताकार। गोल  चित्र टिकली कहलाते थे ,इन्हे स्त्रियां माथेपर लगाती थीं  तथा आयताकार चित्र पदक कहलाते थे जिन्हे पुरुष गले में तावीज़  की तरह पहनते थे।  इन  बहुत  छोटे आकार  के चित्रों के साथ, खड़े आयताकार चित्र भी बनाये जाते थे जिनकी ऊंचाई लगभग दस इंच  और चौड़ाई लगभग आठ इंच राखी जाती थी।   पुरी के जगन्नाथ मंदिर के तीर्थ परिसर  को दर्शाने वाले यह चित्र, ठिया बढ़िया चित्र कहलाते थे। उड़िया भाषा में ठिया का अर्थ है  खड़ा आयताकार और बढ़िया का अर्थ है अच्छा , इस प्रकार ठिया  बढ़िया का अर्थ हुआ सुन्दर खड़ा आयताकार चित्र। इन चित्रों का प्रारूप लगभग निश्चित होता है तथा  इनमें पुरी और वहां स्थित जगन्नाथ मंदिर के प्रत्येक महत्वपूर्ण स्थान एवं घटना को दर्शाया जाता है।

 

पट के अतिरिक्त कुछ जात्री चित्र कागज पर भी बनाये जाते थे जिन्हे पाना / पन्ना एवं गोलो कहा जाता था।  पाना का माप  दस से बारह इंच और गोलो का माप तीन से छः इंच के मध्य रखा जाता था। मजबूती देने और पानी के प्रभाव से बचे के लिए इन पर गर्म लाख का लेप किया जाता था।   

 

जात्री पटचित्रों को मजबूती देने के लिए इन्हें  कुछ मोटे सूती कपड़े से बनाये गए पट पर चित्रित किया जाता था तथा अंत में उनपर गर्म लाख का लेप कर दिया जाता था ताकि वे  पानी से ख़राब  न हों । चित्र पर लाख चढ़ाने की यह प्रक्रिया जाऊ साल कहलाती थी। यह जात्री चित्र मुख्यतः पुरी , रघुराजपुर एवं  डंडासाही  आदि गावों में बनाये जाते थे और इन्हें अधिकांशतः स्त्रियाँ  बनाती थीं। टिकली और पदक जैसे छोटे आकर के चित्रों को एकसाथ बड़ी संख्या में किसी बड़े पट पर बनाकर बाद में उन्हें कैंची से काटकर अलग-अलग कर लिया जाता था। सन १९७० के दशक में प्लास्टिक और धातु के बने पदक और टिकली बाजार में आ जाने के कारण  पारंरिक टिकली और पदक की लोकप्रियता ख़त्म होनेलगी और अंततः उनका प्रचलन मृतप्रायः हो गया।

 

  वर्तमान में टिकली एवं पदक अदि का बनाया जाना लगभग समाप्त हो गया है परन्तु  पाना , गोलो एवं  ठिया  बढ़िया अब  भी बनाये जाते हैं। कालांतर में इन पारम्परिक पटचित्रों का स्वरुप बहुत बदल गया है परन्तु उनकी मूल विषयवस्तु और चित्रण शैली  वैसी ही बनी  हुई है। सन २००४ में  पुरी में श्रीमती निषामणी महाराणा , श्रीमती बाऊ रानी महपात्र ,श्रीमती पार्वती महाराणा ; डंडासाहि गांव  में  श्रीमती हीरा महाराणा, श्रीमती सीता  महाराणा एवं मण्डिया महाराणा तथा रघुराजपुर में बाबाजी महराणा पाना एवं गोलो बनाने वाले दक्ष चित्रकार थे।  

 

देश की आज़ादी से पहले रियासतों के ज़माने में  पुरी के राजा,जगन्नाथ मंदिर की सेवा हेतु दरबार के अपने चित्रकार रखा करते थे जो समय -समय पर मंदिर की चित्रकारी सम्बन्धी आवश्यकताएं पूरी करते थे। इसी प्रकार ओडिशा की सभी छोटी - छोटी रियासतों और जमींदारियों  के अपने-अपने  चित्रकार होते थे जो वहां स्थित मंदिरों में चित्रकारी करते थे। सन  १९५० के आस्-पास पुरी में राम महाराणा , कृष्ण महाराणा  तथा मार्कण्ड  महाराणा बहुत प्रसिद्ध  एवं दक्ष  पट चित्रकार थे जो जगन्नाथ मंदिर से सम्बद्ध थे।  

 

ओडिशा में चित्रित मूर्तियों एवं लकड़ी से बने बक्सों पर चित्रकारी की समृद्ध परम्परा है।   अधिकांशतः चित्रकार एवं मूर्तिकार एक ही समुदाय से  होते हैं जिन्हें महाराणा अथवा महापात्र कहा जाता है। पहले तो अनेक चित्रकार ही मूर्तिकार भी होते थे।   लकड़ी से बनाई गयी जगन्नाथ मूर्तियों पर कपड़ा चढ़ा कर रंगांकन  किया जाता था अतः उन्हें बनाने के लिए मूर्तिकार को चित्रकारी भी आनी आवश्यक थी। मंदिरों में चित्रकारी का काम सभी महाराणा चित्रकार  नहीं कर सकते , केवल वही चित्रकार कर सकते हैं जिनके  परिवारों को यह अधिकार पारम्परिक रूप से प्राप्त है। यह व्यवस्था आज भी ज्यों की त्यों बनी हुई है।

 

बनाये जानेवाले जात्री चित्र जिन्हे जात्री पट्टी भी कहा जाता था  निम्न थे -

 

टिकली -  गोलाकार अथवा अंडाकार में बने  इन चित्रों का माप एक इंच या इससे काम रखा जाता था।  इन्हे स्त्रियां माथे पर बिंदी की तरह लगतीं थीं। इनमे अधिकांशतः केवल जगन्नाथ जी का चित्रांकन किया जाता था परन्तु कभी -कभी सुभद्रा और बलभद्र भी चित्रित कर दिए  जाते थे।

 

 

पदक -   इन आयताकार चित्रों का माप एक इंच या इससे काम रखा जाता था।  इन्हे पुरुष गले में तावीज़  की तरह पहनते थे।    इनमे जगन्नाथ जी का चित्रांकन किया जाता था तथा कभी -कभी सुभद्रा और बलभद्र भी चित्रित कर दिए  जाते थे।

 

पाना / पन्ना -  यह चित्र, पट पर नहीं बल्कि कागज बनाये जाते थे  जिस कारण इन्हे पाना या पन्ना कहा जाता था।  इनका माप  दस से बारह इंच रखा जाता था और इन पर  केवल जगन्नाथ जी अथवा कभी -कभी सुभद्रा और बलभद्र भी चित्रित कर दिये जाते थे।

 

गोलो - कागज पर बनाये गए इन गोलाकार चित्रों का माप तीन से छः इंच के मध्य रखा जाता था। इन पर   जगन्नाथ , सुभद्रा और बलभद्र चित्रित कर दिये जाते थे।


 

ठिया बढ़िया  पटचित्र -  

सामान्य भाषा में कहें तो खड़े प्रारूप वाले पट चित्र , ठिया  बढ़िया  कहलाते हैं।  इन चित्रों में पुरी के जगन्नाथ मंदिर की स्थिति , उसकी बनावट , उसके प्रमुख पात्र , महत्वपूर्ण पवित्र स्थल एवं वहां आयोजित विभिन्न गतिविधियां , जगन्नाथ और उनसे सम्बद्ध देवकुल आदि को दर्शाया जाता है।  चित्र का प्रारूप इस प्रकार निरूपित किया जाता है कि वे भक्त जो पुरी के जगन्नाथ मंदिर नहीं आ सके हैं , इस चित्र के माध्यम से सम्पूर्ण मंदिर परिसर के दर्शन एवं वहां आयोजित होने वाली विभिन्न धार्मिक गतिविधियों और उसकी परिकल्पना की अनुभूति कर सकें।

इन चित्रों के प्रारूप , चित्रांकित किये जाने वाले चरित्र , स्थल तथा गतिविधियां आदि लगभग निश्चित होती हैं परन्तु  प्रत्येक चित्र में उनका दर्शाया जाना वहां उपलब्ध स्थान पर निर्भर करता है। बड़े आकर के चित्र में प्रत्येक घटना का चित्रण  अधिक विवरणों सहित और सुस्पष्ट रूप से किया जाता है।  परन्तु छोटे आकर के चित्र में कम महत्त्व के चरित्रों को छोड़ दिया जाता है या केवल प्रतीकात्मक रूप से दर्शा दिया जाता है। दर्शक  चित्रित चरित्रों की पहचान उनके रंग और स्थान से ही करते हैं।    

 

ठिया बढ़िया चित्रों में जगन्नाथ मंदिर के जिन महत्वपूर्ण स्थानों को दर्शाया जाता है  उनमें मंदिर की बाहरी चारदीवारी  मेघनाद पाचिरि , मंदिर की भीतरी चारदीवारी , कूर्म पाचिरि, सिंह द्वार  , मुख्य मंदिर  बड़ देउल , जगमोहन नाट्यमण्डल , भोगमण्डप, अरुण स्तम्भ , बारह भाई हनुमान मंदिर, लक्ष्मी मंदिर , बेडा काली मंदिर , स्नान वेदी , रसोई साल एवं आनंद बाजार आदि हैं।  

ठिया बढ़िया चित्र  जगन्नाथ मंदिर के वास्तविक वास्तुशिल्पीय  प्रारूप को ध्यान में रखकर बनाए जाते हैं। मंदिर  की बनावट किस दिशा में कैसी है उसे  वैसा ही  दर्शाने का प्रयास किया जाता है। चित्र का आधार पूर्व दिशा , शीर्ष  पश्चिम दिशा , दाहिना भाग उत्तर दिशा एवं बायाँ  भाग दक्षिण दिशा को दर्शाता है।  चित्र के आधार पर  अंकित मंदिर का सिंहद्वार पूर्व दिशा  का द्योतक है,क्योकि  वास्तव में मंदिर का सिंहद्वार पूर्व दिशा में है।

 

जगन्नाथ मंदिर के चार द्वार हैं , सामने पूर्व दिशा की ओर मुख्य सिंहद्वार , दाहिनी ओर अर्थात उत्तर दिशा में हाथीद्वार ,  बांयी ओर अर्थात दक्षिण दिशा में घोड़ा द्वार तथा पीछे की और यानि पश्चिम दिशा में बाघ द्वार। सामान्यतः ठिया बढ़िया चित्रों में स्थान की कमी के कारण केवल सिंहद्वार ही दर्शाया जाता है।  चित्र में चारों और बनाया गया बार्डर मंदिर की बाहरी चारदीवारी  जिसे मेघनाद  पाचिरि  कहते हैं , को दर्शाता है।

 

इन चित्रों में अंकित किये जाने वाले चरित्र , स्थान  और प्रसंग  निम्न हैं।

 

कांची अभियान - कांची अभियान की कथा , ओडिशा के लोक विश्वास एवं  जन कथानकों का अभिन्न अंग है। यह कथा पुरी  के राजाओं  का  जगन्नाथ  के प्रति भक्तिभाव औरआस्था  को बड़े ही सरल तरीके से दर्शाती है।  माना जाता है कि यह कथा उस समय की है जब पुरी  पर पुरुषोत्तम देव गजपति नामक राजा राज्य करते थे। वे तमिलनाडु  के कांचीपुरम की राजकुमारी पद्मावती  से प्रेम करते थे और उससे विवाह करना चाहते थे। परन्तु कांचीपुरम नरेश अपनी पुत्री का विवाह पुरुषोत्तम देव से इस कारण नहीं करना चाहते थे , क्योंकि पुरुषोत्तम देव प्रत्येक वर्ष जगन्नाथ रथ यात्रा के समय स्वयं सड़क पर झाड़ू लगते थे , और कांचीपुरम के राजा,  झाड़ू लगाने को एक चांडाल कर्म समझते थे।  वे अपनी पुत्री का विवाह किसी चांडाल कर्मी से नहीं  कर सकते थे। उनके इस उत्तर को सुनकर पुरुषोत्तम देव बहुत क्रुद्ध हो गये और उन्हीने जगन्नाथ से प्रार्थना की कि वे कांचीपुरम विजय करने में उनकी सहायता करें।   जब वे कांचीपुरम पर आक्रमण हेतु अपनी सेना लेकर चले  और पटना नामक गांव के पास पहुंचे तब उन्हें वहां माणिक नाम की दहीवाली मिली जिसने उन्हें बताया कि कुछ देर पहले काले और सफ़ेद धोड़ो पर सवार  दो भाई  सैनिक वेश  में कांचीपुरम की और गए हैं।  वे दौनों गर्मी से बहुत परेशान थे इसलिए उन्होंने मेरा दही खाया , परन्तु उनके पास पैसे नहीं थे , उन्होंने मुझे अपनी अंगूठी दी और कहा कि पीछे राजा  आ रहे हैं उन्हें यह अंगूठी देकर अपने दही की कीमत ले लेना।  यह सुनकर राजा ने समझ लिया कि स्वयं जगन्नाथ और बलभद्र  उनकी सहायता के लिए आगे गए हैं। उन्होंने दहीवाली को कहा कि तुम धन्य को कि तुमने जगन्नाथ और बलभद्र का  साक्षात् दर्शन कर लिया।  राजा ने दहीवाली के नामपर उस गांव का नाम माणिक पटना रख दिया। तदुपरांत काँची पर  विजय प्राप्त की और  पद्मावती से विवाह कर पुरी लौटे।  इस सम्पूर्ण घटनाक्रम को दर्शाने वाली मूर्तियां जगन्नाथ मंदिर के नाट्य मंडप में बानी हुईं हैं।  

 

कांची अभियान का यह प्रकरण ठिया बढ़िया चित्रों में ऊपर के भाग में बनाया जाता है  जिसमें सफ़ेद घोड़े पर जगन्नाथ और काले घोड़े पर बलभद्र सवार दिखाए जाते हैं , जगन्नाथ को काले एवं बलभद्र को सफ़ेद रंग से चित्रित किया जाता है। एक ओर  माणिक दहीवाली भी अंकित की जाती है।  

इस प्रकरण के  चित्रण द्वारा  , जगन्नाथ के प्रति पुरी के राजाओं के विश्वास और समर्पण की कथा जन -जन तक पहुँचती है ।

 

दशावतार - उड़िया संस्कृति में जगन्नाथ को नारायण का ही एक रूप मन जाता है। यह भी विश्वास किया जाता है कि नारायण ने चार युगों में दस अवतार लिए हैं जो दशावतार कहलाते हैं।  सतयुग में मतस्य  अवतार ,  कच्छप अवतार, वराह अवतार , नृहसिंह  अवतार एवं वामन अवतार; त्रेता युग में परशुराम  और राम अवतार ; द्वापर युग में बलराम अवतार ; कलियुग में बुद्ध एवं कल्कि अवतार।  नारायण के इन दस रूपों को दर्शाने हेतु ठिया  बढ़िया चित्रों में  दशावतर चित्रित किये जाते हैं तथ इन्हें चित्र के ऊपरी भाग में बनाया जाता है।   बुद्ध अवतार में बुद्ध के स्थान पर स्वयं जगन्नाथ को चित्रित किया जाता है ,विश्वास किया जाता है कि बुद्ध और जगन्नाथ  एक ही हैं।

पुरी  में जगन्नाथ मंदिर के सिंहद्वार की चौखट में दशावतार की मूर्तियां उत्कीर्ण की गयी हैं, उन्ही का प्रतिनिधित्व ठिया बढ़िया में  चित्रित दशावतार के यह चित्र करते हैं।

राम - लक्ष्मण एवं रावण युद्ध  -  रामलीला और कृष्णलीला से सम्बंधित अनेक चित्र जगन्नाथ मंदिर के साथ बने नाट्य मंडप की छत और दीवारों पर बने हैं , ठिया बढ़िया चित्रों में बनाया जाने वाला यह दृश्य उन्ही का प्रधिनिधित्व करता है। राम - लक्ष्मण एवं रावण के युद्ध का यह दृश्य चित्र के ऊपरे भाग में बांयी ओर  बनाया जाता है।  राम को नीले और लक्ष्मण को पीले रंग से चित्रित किया जाताहै।  

अनन्त  शयन -  विश्वास किया जाता है कि नारायण का यह आदिरूप है जिसमें वह क्षीरसागर में शेषनाग पर शयन करते रहते हैं। जब कभी देवताओं अथवा मानवों  पर कोई भरी विपत्ति आती है तो अवतार रूप में प्रकट होते हैं। जगन्नाथ मंदिर के नाट्य मंडप में नारायण अनन्त शयन की प्रस्तर प्रतिमा एवं चित्र बने हुए  हैं , ठिया  बढ़िया चित्रों के ऊपरी  भाग  में  बनाया जाने वाला  यह दृश्य उन्ही का प्रतिनिधित्व करता है। इस दृश्य में क्षीरसागर में शेषनाग पर शयन करते नारायण , उनके पैर दबातीं लक्ष्मी , सर के पास सरस्वती , नाभि कमल पर विराजमान बृह्ममा ,पास में गरुण , देवगण , नारद , इंद्र , सप्तऋषि अदि दर्शाये जाते हैं।

बारह भाई हनुमान - पुरी के जगन्नाथ मंदिर की कूर्म पाचिरी और मेघनाद  पाचिरी  के मध्य  बारह भाई हनुमान का मंदिर बना हुआ है।   ठिया बढ़िया चित्रों में बनाया जाने वाला यह दृश्य उसी का प्रतिनिधित्व करता है, परन्तु इसमें चित्रित किये जाने वाले हनुमान भाइयों की संख्या उपलब्ध स्थान पर निर्भर करती है । सामान्यतः इसे ऊपर दाहिनी ओर  चित्रित किया जाता है।

माना  जाता है कि हनुमान बारह भाई थे ,हनुमान , बाली  , सुग्रीव, अंगद, नील , नल , जामवंत , सुसेन अदि।  जगन्नाथ मंदिर में इन सभी को दर्शाया गया है क्योकि नारायण ने जब राम अवतार लिया तब हनुमान उनके भक्त और सेवक थे  इसी की महत्ता दर्शाने हेतु इन्हें चित्रित किया जाता है।

अष्टवीर - पुरी के जगन्नाथ मंदिर में अष्टवीरों का चित्रण हुआ है ,  ठिया बढ़िया चित्रों में बनाया जाने वाला यह दृश्य उसी का प्रतिनिधित्व करता है, परन्तु इसमें चित्रित किये जाने वाले अष्टवीरों  की संख्या उपलब्ध स्थान पर निर्भर करती है । सामान्यतः इसे मध्य भाग में   चित्रित किया जाता है।

शीतला मंदिर -  शीतला मंदिर , पुरी  के जगन्नाथ मंदिर परिसर में उत्तर दिशा में स्थित है। इसी मंदिर के पास एक कुआँ स्थित है जिसे सोना कुआँ कहा जाता है। सामान्यतः जगन्नाथ जी जब स्नान करते है तब व उन्हें  पानी से नहीं बल्कि मंत्रोच्चार से स्नान कराया जाता है।  वर्ष में एकबार ज्येष्ठ माह की देव स्नान पूर्णिमा  को उन्हें जल से स्नान कराया जाता है जिसके लिए सोना कुआँ  का पानी प्रयोग में लाया  जाता है। यह सोना कुआँ वर्ष भर बंद रखा जाता है , केवल इसी अवसर पर इसे खोलते हैं।  

ठिया बढ़िया चित्र में शीतला मंदिर और सोना कुआँ का चित्रण , जगन्नाथ के जल स्नान की इस महत्वपूर्ण घटना प्रतिनिधित्व करता है। इसे चित्र में ऊपर बाईं ओर दर्शाया जाता है।  

विवाह मंडप -  पुरी में मान्य परंपरा के अनुसार प्रति वर्ष ज्येष्ठ माह की चम्पक द्वादशी को जगन्नाथ मंदिर परिसर में  कृष्ण और रुक्मणि का विवाह रचाया जाता है। इस आयोजन हेतु यहाँ स्थित विवाह मंडप में कृष्ण के मदनमोहन  रूप की चांदी की बानी चलन्ति प्रतिमा और रुक्मणि की मूर्ति लायी जाती है और उनके माध्यम से विवाह का अनुष्ठान संपन्न किया जाता है।  यह समारोह बहुत ही उल्ल्हास और जोर-शोर से मनाया जाता है जिसमें सैकड़ों भक्त भाग लेते हैं।  

आमतौर  पर ठिया बढ़िया चित्रों में यह आयोजन दर्शाने हेतु विवाह मंडप का चित्रण किया जाता है,  जिसे  ऊपर दाहिनी ओर चित्रित किया जाता है।  

दयणा चोरी -  यद्यपि दयणा चोरी का प्रसंग  पुरी  के जगन्नाथ मंदिर में कहीं भी नहीं दर्शाया गया है , परन्तु जगन्नाथ से सम्बद्ध एक महत्वपूर्ण प्रसंग होने के कारण  इसे ठिया  बढ़िया चित्रों में चित्रित किया जाता है।  प्रति वर्ष चैत्र माह में , पुरी में शाही जात्रा  , रामलीला आयोजित की जाती है।  इस आयोजन में प्रस्तुत किया जाने वाला सबसे पहला प्रसंग दयणा चोरी का होता है। ठिया बढ़िया चित्रों में यह प्रसंग , ऊपर बांयी ओर  चित्रित किया जाता है।

प्रचलित किवदंती के अनुसार प्रचीन समय में दयणा नामकी एक युवती थी जिसे कुपित होकर एक ऋषि ने यह शाप दिया की वह युवती से जटा बनजाये।  शापग्रस्त दयणा जटा रूप बन गयी और वर्षों इसी रूप में  पड़ी रही। दयणा, जगन्नाथ की अनन्य भक्त थी और जटा रूप में भी वह जगन्नाथ की भक्ति करती रही। उसने आशा नहीं छोड़ी और जगन्नाथ से अपने उद्धार की प्रार्थना करती रही। उसकी भक्ति से प्रसन्न होकर जगन्नाथ ने उसका उद्धार किया और उसे जटा से पुनः कन्या रूप प्रदान कर दिया।  वे उसे ऋषि आश्रम से चुराकर बहार लाये और उसे स्वतंत्र जीवन जीने का अवसर प्रदान किया। जगन्नाथ द्वारा ऋषि आश्रम से  दयणा को चुराकर लाने  का यह प्रकरण दयणा चोरी के नाम से प्रसिद्ध  हुआ।

 

बेड़ा काली मंदिर-  पुरी स्थित जगन्नाथ मंदिर परिसर में काली मंदिर उत्तर दिशा में बना हुआ है। इसे सम्पूर्ण मंदिर परिसर की रक्षक मन जाता है , इसी कारण  इसे बेड़ा काली भी कहा जाता है।  यहाँ काली की प्रतिमा पत्थर की बानी हुई है। वर्ष में एकबार जब जगन्नाथ प्रतिमा पर रंग -रोगन किया जाता है तब इस पर भी रंग किया जाता है।

 

ठिया बढ़िया चित्रों मैं इसे ऊपर दाहिनी ओर अंकित किया जाता है।  

 

स्नान वेदि-  प्रचलित परंपरा के अनुसार प्रतिवर्ष  ज्येष्ठ पूर्णिमा  जिसे देव स्नान पूर्णिमा भी  कहते हैं , के दिन जगन्नाथ को जल स्नान कराया जाता है। जल स्नान का यह समारोह बहुत ही धूम - धाम से और विधिपूर्वक संपन्न किया जाता है। इस अवसर पर जगन्नाथ को मंदिर परिसर के पूर्वी - उत्तरी कोने पर बानी स्नान वेदी  में ला कर यह अनुष्ठानिक स्नान  पूरा  किया जाता है। स्नान हेतु सोना कुआँ से साढ़े आठ कलश पानी लाया जाता है।  स्नान वेदी पर विराजमान जगन्नाथ को उस दिन हाथी  वेश  में सजाया जाता है। शोलापिथ  से हाथी के दो चेहरे बनाये  हैं , एक काला और एक सफ़ेद।  काला  चेहरा जगन्नाथ के लिए और सफ़ेद  बलभद्र के  लिए।  

इस दिन जगन्नाथ के हाथी वेश के सम्बन्ध में एक रोचक कथा प्रचलित है , कहते हैं एक बार एक तीर्थयात्री  महाराष्ट्र से पुरी आया , उसके  इष्टदेव गणेश थे   इस कारण  उसके मन में जगन्नाथ के लिए वह शृद्धा नहीं जगी जो गणेश के लिए थी। रात  को उसे जगन्नाथ ने स्वप्न में दर्शन दिए और कहा कि तुम  देव स्नान पूर्णिमा को आओ , तुम्हें मेरा हाथी  रूप देखने को मिलेगा , क्योकि गणेश भी मैं ही हूं।  

इसी देव स्नान आयोजन के प्रतिनिधि स्वरुप स्नान वेदि का चित्रण  ठिया बढ़िया चित्रों में किया जाता है।      

अणसर पट्टी -  अणसर का अर्थ है बिना किसी अवसर का समय  अर्थात वह समय जब कोई आयोजन न हो। अणसर की अवधि देव स्नान पूर्णिमा के अगले दिन से आरम्भ होकर  अगले पंद्रह दिन रहती  है।  परम्परा के अनुसार स्नान के उपरांत जगन्नाथ , बलभद्र और सुभद्रा को रथयात्रा तक  उनके मूलस्थान , रत्न सिंहासन पर नहीं बैठाया जाता।  उन्हें मुख्य मंदिर ,बड़ देउल में  न रखकर , जगमोहन मंदिर की अणसर पिण्डी पर बैठाया जाता है।  कहते हैं स्नान के बाद इन तीनों को बुखार हो जाता है और अणसर पिण्डी पर बैठाकर उनका इलाज किया जाता है।  इस समय अणसर पिण्डी के आगे बांस की चटाई का पार्टीशन  लगाकर इन तीनों की मूर्तियों को छिपा दिया जाता है।  इन पंद्रह दिनों दर्शनार्थियों को मूर्तियों के दर्शन नहीं होते बल्कि उनके स्थान पर बांस की चटाई पर लटकाये गए उनके पटचित्र  के दर्शन कराए जाते हैं।  इन्ही के द्वारा भोग लगाया जाता है और इन्ही के द्वारा पूजा की जाती है।   इस समय की जाने वाली उनकी सेवा  गुप्त सेवा कहलाती है।यह पटचित्र अणसर पट्टी कहलाता है।  अणसर पट्टी चित्र हर कोई चित्रकार नहीं बना सकता , केवल वही चित्रकार बना सकते हैं जिन्हे यह बनाने का अधिकार राजवंश द्वारा दिया गया है।  यह अधिकार प्राप्त परिवार , हाकिम चित्रकार परिवार कहलाता है।  वर्तमान में यह कार्य पुरी के हरिहर महाराणा और उनका परिवार करता है।  

अणसर का समय बीत जाने के बाद जगन्नाथ का नवयौवन दर्शन होता है।  इस दर्शन के एक दिन पहले अणसर पट्टी हटा  ली जाती है तथा इसे मंदिर परिसर में स्थित राधा - माधव मंदिर में लगा दिया जाता है।  

अणसर पट्टी का जगन्नाथ पूजा में महत्त्व दर्शाने हेतु इसका  चित्रण ठिया बढ़िया चित्रों में निचले भाग में किया जाता है।    

रथजात्रा -  जगन्नाथ पुरी में प्रति वर्ष असाढ़ माह की शुक्ल द्वितीया से अगले नौ दिन तक जगन्नाथ रथ यात्रा आयोजित की जाती है ,ठिया बढ़िया चित्रों में इस विषय पर किया जाने वाला चित्रण उसी को प्रतिबिंबित करता है ।इसे सामान्यतः नीचे बांयी ओर अंकित किया जाता है , यदि स्थान उपलब्ध  हो तो जगन्नाथ , सुभद्रा और बलभद्र तीनों को दर्शाया जाता है।    इस यात्रा में रथ को जगन्नाथ मंदिर से गुंदेचा मंदिर तक ले जाया जाता है।

 

जय - विजय -  जय - विजय का चित्रण ठिया बढ़िया चित्रों में निचले  मध्य भाग में जगन्नाथ प्रतिमा के नीचे दोनो ओर  किया जाता है। अधिकांशतः इन्हें नील रंग से बनाया जाता है।  ये मंदिर के द्वारपाल  होते है।

  

शिव  - ब्रह्म्मा - जगन्नाथ मंदिर के नाट्य  मंडप में  शिव और ब्रह्म्मा  की दो प्रस्तर प्रतिमाएं  स्थित हैं जिन्हें जगन्नाथ से प्रार्थना करते दिखाया गया है।  ठिया बढ़िया चित्रों में चित्रित की जाने वाली शिव एवं ब्रह्म्मा आकृतियां इन्हीं का प्रतिनिधित्व करतीं हैं। नारायण , शिव एवं  ब्रह्म्मा को आदि देव माना।   पुरी के जगन्नाथ मंदिर में तीर्थयात्रियों को इन त्रिदेव के एक साथ दर्शन हो जाते हैं।

अरुण स्तम्भ - जगन्नाथ मंदिर के सिंह द्वार के  सामने ग्रेनाइट पत्त्थर का बना एक स्तम्भ लगा है जिसे अरुण स्तम्भ कहते हैं। माना जाता है कि यह कोणार्क के सूर्य मंदिर से लाकर यहाँ स्थापित किया गया है। इन्हें सूर्य नारायण का वाहन माना जाता है।

गरुण स्तम्भ -  अरुण एवं गरुण दौनों भाई - भाई मने जाते हैं।  अरुण ज्येष्ठ हैं और गरुण कनिष्ठ। अरुण, सूर्य नारायण के वाहन हैं और गरुण , विष्णु नारायण के। क्योकि दौनों ही नारायण से सम्बद्ध हैं अतः उन्हें यहाँ चित्रित किया जाता है। गरुण स्तम्भ को ठिया बढ़िया चित्रों में शिव और ब्रह्म्मा  के मध्य दर्शाया जाता है।   

पतितपावन - पतितपावन , जगन्नाथ का ही एक रूप है जिसमें उन्हें एकल रूप में दर्शाया जाता है अर्थात उनके साथ सुभद्रा और बलभद्र को नहीं दिखाया जाता।  

मुक्ति मंडप -  मुक्ति मंडप, जगन्नाथ पुरी मंदिर परिसर  का एक महत्वपूर्ण  स्थल है इसलिए इसे ठिया बढ़िया चित्रों में निचले भाग में दाहिनी ओर चित्रित किया जाता है।

 

आनंद बाजार -जगन्नाथ पुरी मंदिर परिसर के बाहरी बेड़ा में आनंद बाजार स्थित है। यहाँ जगन्नाथ के भोग प्रसाद की सामग्री बिकती है। आमतौर पर इसका अंकन ठिया बढ़िया चित्रों में मध्य में नीचे की ओर किया जाता है।

रसोईसाल -जगन्नाथ पुरी मंदिर परिसर में एक स्थाई रसोई है इसे रसोई साल कहते हैं। यहाँ जगन्नाथ के भोग प्रसाद तैयार किया जाता है। इसका अंकन ठिया बढ़िया चित्रों में नीचे बांयी ओर किया जाता है।



 

समुद्र - पुरी का  जगन्नाथ मंदिर समुद्र के किनारे स्थित है बढ़िया चित्रों में मंदिर की यह स्थिति दर्शाने के लिए समुद्र का चित्रण नीचले दाहिने कोने में किया जाता है। वर्तमान समय में समुद्र जगन्नाथ मंदिर के सिंहद्वार के सामने लगभग २-३ किलोमीटर दूर हो गया है। यह समुद्र तट कहोदधि कहलाता है और यहाँ स्नान करना पुण्यदायक मन जाता है।  

अठारह नाला - पुरी नगर में प्रवेश करने के लिए मुसा नदी पर करनी पड़ती है। यह नदी पुरी में प्रवेश और उसकी नगर सीमा को दर्शाती है। माना जाता है कि मुसा नदी से अठारह नाले निकलते हैं, इसी नदी और इसके नालों को ठिया बढ़िया चित्रों मेंनीचे दाहिनी तरफ चित्रांकित किया जाता है।  

 

सिद्ध महावीर - जो तीर्थयात्री जगन्नाथ पुरी सिद्धक्षेत्र  की यात्रा हेतु आते हैं वे  सिद्ध महावीर  मंदिर अवश्य जाते हैं।  यह मंदिर ,जगन्नाथ मंदिर से लगभग पांच किलोमीटर दूर स्थित है और यहाँ प्रतिवर्ष कार्तिक माह में मेला लगता है । यह जगन्नाथ पुरी सिद्धक्षेत्र का एक महत्वपूर्ण धार्मिक स्थल है इसलिए इसे ठिया बढ़िया चित्रों में निचले भाग में चित्रित किया जाता है।

माया मृग - माया मृग रामायण का एक महत्वपूर्ण प्रसंग है , इसे प्रमुखता के साथ  ठिया बढ़िया चित्रों में मध्य भाग में चित्रित किया जाता है। रामलीला और कृष्णलीला से सम्बंधित अनेक चित्र जगन्नाथ मंदिर के साथ बने नाट्य मंडप की छत और दीवारों पर बने हैं , ठिया बढ़िया चित्रों में बनाया जाने वाला यह दृश्य उन्ही का प्रधिनिधित्व करता है।

सीता हरण - ठिया बढ़िया चित्रों में सीता हरण का चित्रण, जगन्नाथ मंदिर के नाट्य मंदिर में बने रामायण  संबंधी चित्रों का प्रतिनिधित्व करता है।  साथ ही यह नारायण के विभिन्न अवतारों से सम्बद्ध प्रमुख घटनाओं को भी  दर्शाता है।