मध्यकालीन भारत की भक्ति परम्पराओं के चंद अहम पहलु

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Published on: 30 November 2016

Raziuddin Aquil

Raziuddin Aquil is Associate Professor at the Department of History, University of Delhi. His books include Sufism, Culture and Politics, and most recently, Literary and Religious Practices in Medieval and Early Modern India (co-edited with David Curley).

(पल्लव - 2015, हिंदी साहित्य परिषद, हिंदी विभाग, किरोड़ीमल महाविद्यालय, दिल्ली विश्वविद्यालय, में 13 मार्च 2015 को दिया गया व्याख्यान)

 

मुझे ख़ुशी है कि आज मुझे यहाँ बोलने का मौक़ा मिला है l आमतौर पर इतिहास और साहित्य के विद्वान एक दूसरे से बातें नहीं कर पाते हैं, हालांकि सबको मालूम है कि इतिहास और साहित्य में चोली-दामन का रिश्ता है और दोनों एक दूसरे के बिना अधूरे हैं l राजनीति से प्रेरित या सिंप्लिस्टिक (एकांगी) काल-विभाजन भी इसी से जुड़ा हुआ मसला है l इतिहास को प्राचीन (संस्कृत), मध्य-काल (फ़ारसी) और आधुनिक-काल (अंग्रेजी) में विभाजित कर दिए जाने का नतीजा है कि भारतीय देशज भाषाई साहित्य का एक बहुत बड़ा भाग उपेक्षित रह जाता है l  हाल के दिनों में इतिहासकारों  ने देशज साहित्य का—चाहे वह असामी, बंगाली, अवधि और ब्रज (यानि हिंदी), पंजाबी, राजस्थानी, मराठी या दक्षिण भारत की विभिन्न भाषाओं में पाया जाता हो—न सिर्फ स्रोतों के रूप में इस्तेमाल किया है बल्कि उनके विभिन्न प्रकारों के महत्त्व को भी उनके विभिन्न सन्दर्भों में समझने का प्रयास किया है l

 

इनमें सूफियों और संतों की रचनाएँ, प्रेमाख्यान वग़ैरह, विशेष रूप से महत्वपूर्ण हैं l यहाँ चूँकि बात भक्ति-साहित्य के हवाले से करनी है, यह सर्व-विदित है कि मध्यकालीन भक्ति परम्पराओं की कई धाराओं ने समाज के निचले तबकों से आने वाले सुधारकों के नेतृत्व में धार्मिक अनुष्ठानों की निंदा की और जाति या जातिवाद पर आधारित भेदभाव की आलोचना करते हुए लोगों का आह्वान किया कि एक निराकार भगवान को, जिनको राम की संज्ञा दी गयी, अपने दिल के अंदर खोजने की ज़रूरत है l भक्ति की कुछ अन्य परम्पराएँ अयोध्या के मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम के इर्द-गिर्द हिन्दू धार्मिक आंदोलनों के रूप में पहचानी जाती हैं और कुछ हद तक लोकप्रिय इस्लामी आध्यात्मिकता, सूफीमत, के खिलाफ एक प्रतिक्रिया का रूप ग्रहण करती हुई प्रतीत होती हैं l कालांतर में यह हिन्दू और मुसलमानी परम्पराएँ एक दूसरे से उलझती और टकराती नज़र आती हैं l हालांकि कबीर और नानक जैसे बड़े संतों और गुरुओं ने इस्लाम और हिन्दू धर्म की विवादस्पद राजनीतिक सीमाओं से ऊपर उठकर चलने का रास्ता दिखाया था, धार्मिक समुदायों की संरचना और उनकी शिनाख्त के संघर्ष में अक्सर खून की होली खेली गयी है l उन संतों की आत्मा कहीं ज़रूर तड़प रही होगी, खासकर इसलिए कि उन्होंने ने अंतरात्मा की आवाज़ पर ज़ोर दिया था और आत्मा और परमात्मा के बीच के बड़े फासले को पाटने की कोशिश की थी l यह सही है कि वह कुछ हदतक प्रतिस्पर्धी आध्यात्मिकता में शामिल थे और सामाजिक-धार्मिक विचारों के लिए एक दूसरे पर  निर्भर रहते हुए अनुयायियों को अपनी ओर आकर्षित करने की होड़ में लगे थे, लेकिन उनकी मंशा अपने अनुयायियों को झगड़ालु समुदायों में व्यवस्थित करने की क़तई नहीं थी l

 

दुर्भाग्यवश, कई मामलों में अनुयायियों ने अपने आध्यात्मिक गुरुओं की मूल शिक्षाओं को पूरी तरह बदल दिया है, और उन गुरुओं के नाम पर गठित पंथ और सम्प्रदाय एक दूसरे को नीचा दिखाने और वश में करने के लिए राजनीतिक शक्ति के दुरूपयोग का प्रयास करते रहे हैं l कबीर और नानक के शवों के अंतिम-संस्कार पर उनके मुस्लमान और गैर-मुस्लमान अनुयायियों के बीच होने वाले मतभेद और संघर्ष के किस्से उन गुरुओं की जीवनी से जुड़ी ऐतिहासिक परम्पराओं के शर्मनाक अध्याय की ओर इशारा करते हैं l इन संतों को, जिन्होंने अपनी पूरी ज़िन्दगी धार्मिक सीमा-बंदियों और पाखंडों को चुनौती देने में लगा दी थी, मुसलमानी अंदाज़ में दफ़न किया जाना था या हिन्दू क्रियाक्रम के साथ दाह-संस्कार यह इस बात पर निर्भर था कि उनके अनुयायियों का कौन सा समूह अंतिम संस्कार की कार्यवाही पर अपना प्रभुत्व स्थापित करने में सफल हो सकेगा l ग़नीमत है कि उन पवित्र आत्माओं के शव ग़ायब हो गए, इसे चमत्कार कहें या किसी सोंची समझी सदबुद्धि का नतीजा, लेकिन इसका एक फायदा ज़रूर हुआ कि उन गुरुओं को आसानी से, या प्रत्यक्ष रूप से, धार्मिक पहचान की गन्दी राजनीति में भागीदार नहीं बनाया जा सका l

 

कबीर और नानक की तरह, गोरखनाथ की साधना और उपदेश भी धार्मिक पहचान (हिन्दू, मुसलमान, योगी और संत) की लड़ाई में उलझ कर रह गयी है l भक्ति आन्दोलनों के इतिहास के सबसे सम्मानित विद्वानों में से एक, डेविड लोरेंज़ेन ने हाल में कबीर और गोरखनाथ के हवाले से पहचान से जुड़े प्रश्नों का सटीक विश्लेषण किया है l हालांकि गोरखनाथ और कबीर दोनों की जीवनी और शिक्षा का ज़्यादातर हिस्सा किंवदंतियों में डूबा हुआ है, उनकी शिक्षाओं का सार उन रचनाओं से उद्धरित  किया जा सकता है जो मध्यकाल से ही उनके नाम के साथ जुडी रही हैं l गोरखनाथ ग्यारहवीं-बारहवीं शताब्दियों के बीच की अवधी में रहे होंगे और उनके धार्मिक विचारों में से कुछ, जिन्हें बाद में गोरखबानी में संकलित किया गया था, हिंदुत्व की मौजूदा राजनीति के सन्दर्भ में महत्वपूर्ण हैं l

 

एक निपुण योगी के रूप में, गोरखनाथ ने कर्मकांडों से परिपूर्ण हिन्दू परम्पराओं से खुद को अलग रखते हुए कहा है: उत्पत्ति हिन्दू जरनम योगी अकली परी मुसलमानी (हम जन्म से हिन्दू हैं, योगी के रूप में परिपक्व और बुद्धि से मुसलमान) l मुसलमानों की बुद्धिमत्ता को इस तरह की श्रद्धांजलि अर्पित करना आज के चौतरफा गिरावट के ज़माने में एक विरोधाभास जैसा लग सकता है, लेकिन गोरखनाथ एक ऐसे युग में रह रहे थे जब मुसलमान कई क्षेत्रों में उत्कृष्टता के मानक स्थापित करते चले आ रहे थे l हालांकि गोरखनाथ ने, बाद में कबीर की तरह, यह नोटिस किया था कि मुसलमानों के मज़हबी ठेकेदार (मुल्ला और क़ाज़ी) सही पथ (राह) पर चलने में असमर्थ थे, उनकी नज़र में सूफी दरवेश स्थापित आध्यात्मिक साधना और गहरे चिंतन द्वारा भगवान के घर के दरवाज़े को खोजने में सक्षम थे (‘दरवेश सोई जो दर की जानें’), और इसलिए वह अल्लाह की जाति के थे (‘सो दरवेश अल्लाह की जाति’) l गोरखनाथ के कई अन्य छंद मुस्लिम और हिन्दू रीति-रिवाजों को दृढ़ता से अस्वीकार करते हैं और एक अलग और बेहतर योग परंपरा के गुणों पर प्रकाश डालते हैं l

 

कबीर की खुल्लम खुल्ला आइकोनोक्लास्म से बहुत पहले, गोरखनाथ ने दहाड़ा था: हिन्दू मंदिरों में पूजा करते हैं और मुसलमान मस्जिद जाते हैं, लेकिन योगी लोग उस सर्व-शक्ति की उपस्थिति में ध्यान करते हैं जहाँ न मंदिर है, न मस्जिद (‘हिन्दू ध्यावै देहुरा मुसलमान मसीत, योगी ध्यावै परमद जहाँ देहुरा न मसीत’) l वेद और क़ुरान जैसे शास्त्रों की राजनीति से प्रेरित व्याख्या से खुद को अलग करते हुए गोरखनाथ ने यह दावा किया कि केवल योगी ही परमपद के रहस्यों को अन्तर्निहित किये हुए छंदों को समझ सकते हैं, क्यूंकि बाक़ी दुनिया सांसारिक भ्रम और धंधे-बाज़ी में लिप्त है (‘ते पद जानें बिरला योगी और दूनी सब धंधे लायी’) l

 

गोरखनाथ की रचनाओं में तीन अलग-अलग धार्मिक पोसिशन्स निकल कर सामने आती हैं: औपचारिक और राजनीतिक रूप से हावी इस्लामी और हिन्दू परम्पराओं के आलावा योगियों की रहस्मयी दुनिया जो इस आत्मविश्वास से परिपूर्ण थी कि सूफियों के तरीक़त के महत्व को समझ सके l पंद्रहवीं सदी के उत्तरार्ध और सोलहवीं सदी के प्रारंभिक दशकों में, संत कबीर एक क़दम और आगे चले जाते हैं l खुद को बीच बाजार में खड़ा कर (‘कबीरा खड़ा बाजार में’), कबीर ने न केवल हिन्दू और मुस्लिम धार्मिक नेताओं की खिल्लियाँ उड़ाई, बल्कि स्वयंभू सूफीयों और योगियों के ढोंग का भी पर्दाफाश किया l कबीर ने हिन्दुओं के पशु बलि अनुष्ठान की आलोचना की है, लेकिन उससे ज़्यादा मुसलमानों द्वारा पशुओं के वध की कड़ी शब्दों में निंदा की है: ‘बकरी मुर्गी किन्ह फुरमाया किसके कहे तुम छुरी चलाया....(और) दिन को रोजा रहत है रात हनत है गाय l’

 

योगियों के लिए कबीर का मशवरा था कि प्रणायाम और साधना के अन्य रूपों को अपनाने का तबतक कोई लाभ नहीं है जबतक व्यक्ति अपने दिल के भीतर की गन्दगी से पाक साफ़ न हो जाय l  इस तरह, अगर इंसान का मन स्वच्छ हो जाय तब वह अपने अंदर के राम को तलाश लेगा, वरना वह पाखंड और धंधे बाज़ी में उलझा रहेगा l

 

ग्रन्थ-माला

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अक़ील,  रज़ीउद्दीन और पार्थ चटर्जी, सं. 2008. हिस्ट्री इन दि वर्नाकुलर. नई दिल्ली: परमानेंट ब्लैक.

 

अग्रवाल, पुरुषोत्तम. 2009. अकथ कहानी प्रेम की: कबीर की कविता और उनका समय. नई दिल्ली: राजकमल.

 

कर्ली, डेविड. 2008. पोएट्री एंड हिस्ट्री: बंगाली मंगल-काव्य एंड सोशल चेंज इन प्रिकॉलोनिअल बंगाल. नई दिल्ली: क्रॉनिकल बुक्स.

 

नोवेत्ज़की, क्रिस्चियन लि. 2009. हिस्ट्री, भक्ति, एंड पब्लिक मेमोरी: नामदेव इन रिलिजन एंड सेक्युलर ट्रडिशन्स (नई दिल्ली: परमानेंट ब्लैक.

 

लोरेंज़ेन, डेविड. 2010. निर्गुण संतों के स्वप्न, धीरेन्द्रे बहादुर सिंह द्वारा हिंदी अनुवाद. नई दिल्ली: राजकमल.

 

वॉदेविल्ल, शेर्लोट. 1998. ए वीवर नेम्ड कबीर: सेलेक्टेड वर्सेज विद ए डिटेल्ड बायोग्राफिकल एंड हिस्टोरिकल इंट्रोडक्शन (नई दिल्ली: ऑक्सफ़ोर्ड.