प्रेमचन्द और भारतीय सांस्कृतिक विरासत

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Published on: 31 July 2019

Dr Priti Tripathi

Dr Priti Tripathi is an Assistant Professor (Department of Hindi) at RBD Women’s College, Bijnor, Uttar Pradesh.

प्रेमचन्द का साहित्यिक आकर्षण उनके अनुवर्ती लेखकों पर इस कदर तारी है कि वे स्वयं को किसी न किसी रूप में उनकी परम्परा से जोड़ना चाहते हैं। इस लेख में सहपीडिया की कोशिश प्रेमचंद की इसी लेखकीय परम्परा को समझने की है। (Photo Courtesy: India Post, Government of India [GODL-India])

 

 

हिन्दी साहित्य के दीर्घकालीन सफ़र में जब रचनाकारों की बात आती है तो वह प्रेमचन्द पर आकर निर्विवाद रूप से ठहर जाती है। प्रेमचन्द का साहित्यिक आकर्षण उनके अनुवर्ती लेखकों पर इस कदर तारी है कि वे स्वयं को किसी न किसी रूप में उनकी परम्परा से जोड़ना चाहते हैं। यहाँ यह जानना उचित होगा कि वह कौन सी परम्परा थी, जिसका प्रतिनिधित्व प्रेमचन्द कर रहे थे। उत्तर स्पष्ट है कि वे उस भारतीय सभ्यता और संस्कृति का प्रतिनिधित्व कर रहे थे जो ‘तेन त्यक्तेन भुंजीथाः’[i] पर आधारित थी, त्याग जिसका मुख्य जीवन दर्शन था और इसके आधार पर वह व्यक्ति को व्यक्ति से, व्यक्ति को समाज से, और समाज को राष्ट्र से जोड़ना चाहते थे।

 

अतः प्रेमचन्द भारतीय जनमानस में व्याप्त किस्से-कहानियों को न केवल जनता की ज़बान में उस तक पहुँचा रहे थे अपितु अपने विचारपूर्ण लेखों के माध्यम से उसे जागृत भी कर रहे थे। क्योंकि वे यह जानते थे कि - ‘भौतिकता पश्चिमी सभ्यता की आत्मा है। अपनी ज़रूरतों को बढ़ाना और सुख-सुविधाओं के लिए आविष्कार इत्यादि करना, पश्चिमी सभ्यता की विशेषताएँ हैं’ । [ii] जो कि प्रेमचंद के अनुसार भारतीय सभ्यता से उलट हैं। हालांकि पश्चिमी सभ्यता की प्रत्येक बात बुरी है, प्रेमचंद ऐसा नहीं मानते थे। वे पाश्चात्य प्रभाव के सकारात्मक पक्षों का आलोचनात्मक मूल्यांकन इन शब्दों में करते थे - ‘इसमें कोई सन्देह नहीं... कि ईसाई धर्म और पश्चिमी सभ्यता से ज़िन्दगी की खुशियों और सांसारिक सुख-सुविधाओं में बहुत... वृद्धि हुई है... शिक्षा, शारीरिक रोगों का उपचार, अनाथों की सहायता इत्यादि कामों को पश्चिमी सभ्यता ने ज़ोर पहुँचाया है... मगर जब यह कहा जाता है कि ईसाई धर्म के अवतरित होने से पहले यह सारी बातें... दूसरे मज़हब में गायब थीं... तो ज़रूरी हो जाता है कि इस ग़लत ख़्याल को उचित और प्रामाणिक... युक्तियों से काटा जाय’।[iii] अतः एक सजग रचनाकार के तौर पर प्रेमचन्द आसन्न सांस्कृतिक संकट से भलीभाँति परिचित थे। उन पर पश्चिम की भाषा-शैली, वहाँ के तौर-तरीकों, रहन-सहन व वेश-भूषा का आकर्षण हावी नहीं था। ब्रिटिश हुकूमत के संक्रमणकालीन दौर में भी वे अपनी जातीय अस्मिता को लेकर पूरी तरह जागरुक थे। इसे उनकी एक कहानी ‘सभ्यता का रहस्य’ के माध्यम से समझा जा सकता है, जिसमें वे दिखावे की संस्कृति के प्रति अपना विरोध दर्शाते हुए कहते हैं—‘सभ्य कौन है और असभ्य कौन? अगर कोट-पतलून पहनना, टाई हैट कॉलर लगाना, मेज पर बैठकर खाना खाना, दिन में तेरह बार कोको या चाय पीना... सभ्यता है तो उन गोरों को भी सभ्य कहना पड़ेगा... जो शराब के नशे से आँखें सुर्ख, पैर लड़खड़ाते हुए, रास्ता चलने वालों को अनायास छेड़ने की धुन में मस्त रहते हैं।’[iv] अपने कथा-साहित्य में इस समस्या को उन्होंने मज़बूती से उठाया है। ‘सभ्यता का रहस्य’ में राय साहब और दमड़ी के चरित्र के माध्यम से उन्होंने सभ्यता के दो अलग-अलग प्रतिमानों को प्रस्तुत किया है।

 

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प्रेमचन्द का जीवन आर्थिक दृष्टि से चाहे जितना विपन्न रहा हो किन्तु सांस्कृतिक दृष्टि से वह सदैव सम्पन्न था (Courtesy: Ankur8563 [CC BY-SA 3.0])

 

सभ्यता पर विचार-विमर्श के क्रम में प्रेमचन्द भारत में सांस्कृतिक जागरुकता लाने के लिए अपने साहित्य के माध्यम से जो प्रयास कर रहे थे, वे उत्तरोत्तर अधिक प्रासंगिक होते जान पड़ते हैं क्योंकि आज भारत जिस उपभोक्तावादी सांस्कृतिक खतरे की तरफ़ बढ़ चुका है, प्रेमचन्द के विचार उससे निपटने में हमारी सहायता कर सकते हैं। वे एक तरह से भारतीय सांस्कृतिक परम्परा के उन्नायक रचनाकार हैं। वे जानते थे कि नया हमेशा प्रासंगिक हो यह आवश्यक नहीं है, जो सार्थक है वही समकालीन है। वह चाहे नया हो अथवा पुराना। इसी के मद्देनज़र अपने ‘पुराना ज़माना: नया ज़माना’[v] शीर्षक लेख में वे पुराने और नये ज़माने की सभ्यता का तुलनात्मक अध्ययन करते हुये कहते हैं कि—‘पुराने ज़माने में सभ्यता का अर्थ आत्मा की सभ्यता और आचार की सभ्यता होता था। वर्तमान युग में सभ्यता का अर्थ है—स्वार्थ और आडम्बर। ...सभ्यता से उनका अभिप्राय नैतिक, आध्यात्मिक, एवं हार्दिक था। ...बड़े-बड़े राजा-महाराजा संन्यासियों को देखकर आदरपूर्वक खड़े हो जाते थे, ... हृदय से उनकी चारित्रिक शुद्धता और आध्यात्मिकता को सिर झुकाते थे।’[vi]

 

प्रेमचन्द का जीवन आर्थिक दृष्टि से चाहे जितना विपन्न रहा हो किन्तु सांस्कृतिक दृष्टि से वह सदैव सम्पन्न था। स्वयं प्रेमचन्द के शब्दों में—‘ग़रीबी और अमीरी के बीच उस समय कोई दीवार न थी। वह सभ्यता ग़रीबों को अपमानित न करती थी ... आधुनिक सभ्यता ने विशेष और साधारण में, छोटे और बड़े में, धनवान और निर्धन में एक दीवार खड़ी कर दी है। ...उसने अपनी यह दीवार आडम्बर पर खड़ी की है। भौतिकता और स्वार्थपरता उसकी आत्मा है।’[vii] प्रेमचन्द का यह कथन न केवल तत्कालीन समाज के भीतर की हलचलों को व्यक्त करता है, वरन् वर्तमान सामाजिक-सांस्कृतिक संकट से भी पाठकों को रूबरू कराता है। विचारणीय है कि हिन्दी साहित्य का वर्तमान दौर विमर्शों का दौर है। पाठ की पुनर्व्याख्याओं का दौर है। ऐसी स्थिति में क्या प्रेमचन्द के समूचे साहित्य का पुनर्पाठ होना आवश्यक प्रतीत नहीं होता? प्रेमचन्द के अध्ययन की नयी दिशाओं के क्रम में इस सांस्कृतिक विमर्श पर चिन्तन ज़रूरी है।

 

स्रोत

  1. ईशावास्योपनिषद्. 2014. संपा.- डॉ. विजयशंकर पाण्डे. दिल्ली: मोतीलाल बनारसीदास.
  2. प्रेमचंद. विविध प्रसंग-1, प्रथम संस्करण. 1962. संकलन और रूपांतर-अमृतराय. इलाहाबाद: हंस प्रकाशन.

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Notes 

[i] मन्त्र संख्या-1, ईशावास्योपनिषद्. 2014, पृ. 11.

[ii] प्रेमचंद के लेख ‘हिन्दू सभ्यता और लोकहित’ से उद्धृत. यह लेख अमृतराय के संकलन (1962) में संकलित है, पृ. 174-175.

[iii] वही, 174

[iv] प्रेमचंद की कहानी ‘सभ्यता का रहस्य’ से उद्धृत.

[v] यह लेख अमृतराय के संकलन (1962) में संकलित है, यहाँ उसी संकलन से इसकी पन्तियों को उद्धृत किया गया है.

[vi] वही, 258

[vii] वही, 259